श्री विष्णु चालीसा



श्री विष्णु चालीसा

।।दोहा।।
जय-जय-जय श्री जगतपति, जगदाधार अनन्त।
वश्वेश्वर अखिलेश अज, सर्वेश्वर भगवन्त॥

।।चौपाई।।
जय-जय धरणीधर श्रुति सागर, जयति गदाधार सद्गुण आगर।
श्री वसुदेव देवकी नन्दन, वासुदेव नासन भव फन्दन।

नमो नमो त्रिभुवन पति ईश, कमलापति केशव योगीशं।
नमो-नमो सचराचर स्वामी, परमब्रह्य प्रभु नमो नमामी।

गरूड़ध्वज अज, भव भयहारी, मुरलीधर हरि मदनमुरारी।
नारायण श्री पति पुरूषोत्तम, पदम् नाभि नर-हरि सर्वोतम।

जय माधव मुकुन्द वन माली, खलदल मर्दन, दमन-कुचाली।
जय अगणित इन्द्रिय सारंगधर, विश्वरूप वामन आनन्द कर।

जय जय लोकाध्यक्ष धनञ्जय, सहस्त्राक्ष जगनाथ जयति जय।
जय मधुसूदन, अनुपम आनन, जयति वायु वाहन ब्रजकानन।

जय गोविन्द, जर्नादन देवा, शुभ फललहत, गृहत तव सेवा।
श्याम सरोरूह सम तन सोहत, दरस करत सुरनर मुनि मोहत।

भाल विशाल मुकुट शिर साजत, उर बैजन्ती माल बिराजत।
तिरछी भृकुटि चाप जनुधारें, तिनतर नयन कमल अरुणारे।

नाशा चिबुक कपोल मनोहर, मृदु मुसकान चक्षु अधरन पर।
जनमणि-पंक्ति, दर्शन मनभावन, वसन पीत तन परम सुहावन।

रूप चतुर्भुज भूषित भूषण, वरद हस्त मोचन भवदूषण।
कञ्जारुण सम करतल सुन्दर, सुख समूह गुण मधुर समुन्दर।

कर महेँ लसित शंख अति प्यारा, सुभग शब्द जय देने हारा।
रविसम चक्र द्वितीय कर धारे, खल-दल-दानव सैन्य संहारे।

तृतीय हस्त महँ गदा प्रकाशन, सदा ताप त्रय पाप विनाशन।
पद्म चतुर्थ हाथ महँ धारे, चारि पदारथ देवन हारे।

वाहन गरुड़ मनो गति चाना, तिहूँ त्यागता जनहित भगवाना।
पहुँचि तहाँ पत राखत स्वामी, को हरि-सम भक्तन अनुगामी।

धनि-धनि महिमा अगम अनन्ता, धन्य भक्त वत्सल भगवन्ता।
जब जब सरहिं असुर दुःख दीन्हा, तब तब प्रकटि कष्ट हर लीन्हा।

जय सुरमुनि ब्रह्मादि महेशू, सहि न सक्या अति कठिन कलेशू।
तब तहँ धरि सिन्धु बिच साजित, संग लक्ष्मी सदा विराजित।

पूरण शक्ति धान्य-धन-खानी, आनन्द भक्ति भरणि सुखदानी।
जासु बिरद निगमागम गावत, शारदा शेष पार नाहि पावत।

रमा राधिका सिय सुखधामा, सोही विष्णु कृष्ण अरु रामा।
अगणित रूप-अनूप अपारा, निर्गुण सगुन स्वरूप तुम्हारा ।

कुछ नहिं भेद वेद अस भाषत, भक्तन से नहिं अन्तर राखत।
श्रीप्रयाग दुर्वासा धामा,   सुन्दरदास तिवारी ग्रामा।

जगहित लागि लगन जगदीसा, निज मति रच्यो विष्णु चालीसा।
जो नित दै/चिंत पढ़त-पढ़ावत, पूरण भक्ति शक्ति सरसावत।

अति सुख वासत अरु ऋणनासत, विभव विकाशत सुमति प्रकाशत।
आवत सुख गावत श्रुति शारद, भाषण व्यास वचन ऋषि नारद।
मिलत सुभगफल शोक नसावत, अन्त समय जन हरिपद पावत।

।।दोहा।।
प्रेम सहित महि ध्यान महँ, हृदय बीच जगदीश।
अर्पित शालिग्राम कहँ, करि तुलसी नित शीश॥
भुगर तनु जानि-करि, अहंकार परिहार।
सार रूप ईश्वर लखै, तजि अप्सार संसार।।

।। ॐ नमोः भगवते वासदेवाय ।।

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