कारक, अकारक एवं मारक Karak, Akarak aur Marak
कुंडली में कारक, अकारक और मारक ग्रह की परिभाषा:-
ग्रहों को नैसर्गिक ग्रह विचार रूप से शुभ और अशुभ श्रेणी में विभाजित किया गया है। बृहस्पति, शुक्र, पक्षबली चंद्रमा और शुभ प्रभावी बुध शुभ ग्रह माने गये हैं और शनि, मंगल, राहु व केतु अशुभ माने गये हैं।
सूर्य ग्रहों का राजा है और उसे क्रूर ग्रह की संज्ञा दी गई है।
बुध, चंद्रमा, शुक्र और बृहस्पति क्रमशः उत्तरोत्तर शुभकारी हैं, जबकि सूर्य, मंगल, शनि और राहु अधिकाधिक अशुभ फलदायी हैं।
कुंडली के द्वादश भावों में षष्ठ, अष्टम और द्वादश भाव अशुभ (त्रिक) भाव हैं, जिनमें अष्टम भाव सबसे अशुभ है
षष्ठ से षष्ठ - एकादश भाव, तथा अष्टम से अष्टम तृतीय भाव, कुछ कम अशुभ माने गये हैं।
अष्टम से द्वादश सप्तम भाव और तृतीय से द्वादश - द्वितीय भाव को मारक भाव और भावेशों को मारकेश कहे हैं।
केंद्र के स्वामी निष्फल होते हैं परंतु त्रिकोणेश सदैव शुभ होते हैं। नैसर्गिक शुभ ग्रह केंद्र के साथ ही 3, 6 या 11 भाव का स्वामी होकर अशुभ फलदायी होते हैं। ऐसी स्थिति में अशुभ ग्रह सामान्य फल देते हैं।
अधिकांश शुभ बलवान ग्रहों की 1, 2, 4, 5, 7, 9 और 10 भाव में स्थिति जातक को भाग्यशाली बनाते हैं। 12 भाव में स्थित ग्रह अपनी दूसरी राशि का फल देते हैं।
शुभ ग्रह वक्री होकर अधिक शुभ और अशुभ ग्रह अधिक बुरा फल देते हैं राहु व केतु यदि किसी भाव में अकेले हों तो उस भावेश का फल देते हैं। परंतु वह केंद्र या त्रिकोण भाव में स्थित होकर त्रिकोण या केंद्र के स्वामी से युति करें तो योगकारक जैसा शुभ फल देते हैं।
लग्न कुंडली में उच्च ग्रह शुभ फल देते हैं, और नवांश कुंडली में भी उसी राशि में होने पर ‘वर्गोत्तम’ होकर उत्तम फल देते हैं।
बली ग्रह शुभ भाव में स्थित होकर अधिक शुभ फल देते हैं। पक्षबलहीन चंद्रमा मंगल की राशियों, विशेषकर वृश्चिक राशि में (नीच होकर) अधिक पापी हो जाता है। चंद्रमा के पक्षबली होने पर उसकी अशुभता में कमी आती है। स्थानबल हीन ग्रह और पक्षबल हीन चंद्रमा अच्छा फल नहीं देते।
कारक ग्रह: ‘कारक’ ग्रह के निर्धारण की विभिन्न विधियां इस प्रकार हैं:-
1. महर्षि पाराशर तथा अन्य आचार्यों ने द्वादश भावों के कारक ग्रह इस प्रकार बताए हैं:-- प्रथम भाव- सूर्य
- द्वितीय भाव-बृहस्पति
- तृतीय भाव- मंगल
- चतुर्थ भाव - चंद्रमा व बुध
- पंचम भाव- बृहस्पति
- षष्ठ भाव- मंगल व शनि
- सप्तम भाव - शुक्र
- अष्टम भाव- शनि
- नवम भाव - बृहस्पति व सूर्य
- दशम भाव- सूर्य, बुध, बृहस्पति व शनि
- एकादश भाव- बृहस्पति
- द्वादश भाव- शनि
- सूर्य- पिता का
- चंद्रमा-माता का
- बृहस्पति-गुरु व ज्ञान का
- शुक्र पत्नी व सुख का
- बुध-विद्या का
- मंगल भाई का
- शनि नौकर का
- राहु म्लेच्छ का स्थिर कारक है
यह ग्रहों के अंशों पर निर्भर करता है। सर्वाधिक अंश वाले ग्रह को ‘आत्म कारक’, उससे कम अंश वाले ग्रह को ‘अमात्य कारक’, उससे कम अंश वाले को ‘भ्रातृ कारक’, उससे कम अंश वाले को ‘पुत्र कारक’ और सबसे कम अंश वाले ग्रह को ‘दारा कारक’ या 'पत्नी कारक’ की संज्ञा दी जाती है। ‘आत्म’ और ‘अमात्य’ कारक जातक का भला करते हैं। राहु/केतु कोई कारक नहीं होते। यदि लग्नेश ही आत्म कारक हो तो उसकी दशा बहुत शुभकारी होती है। ‘आत्म’ कारक ग्रह यदि अष्टमेश भी हो तो उसके शुभ फल में कमी आती है
4. योगकारक:-
प्रत्येक ग्रह केंद्र (1, 4, 7, 10 भाव) का स्वामी होकर निष्फल होता है, परंतु त्रिकोण (1,5,9 भाव) का स्वामी सदैव शुभ फल देता है। एक ही ग्रह केंद्र और त्रिकोण का एक साथ स्वामी होने पर ‘योगकारक’ (अति शुभ फलदायी) बन जाता है। जैसे सिंह राशि के लिए मंगल, और तुला लग्न के लिए शनि ग्रह। लग्नेश केंद्र और त्रिकोण दोनों का स्वामी होने से सदैव योगकारक की तरह शुभफलदायी होता है। लग्नेश को 6, 8, 12 भाव के स्वामित्व का दोष नहीं लगता।
5. परस्पर कारक:-
जब ग्रह अपनी उच्च, मूलत्रिकोण या स्वराशि के होकर केंद्र में स्थित होते हैं तो ‘परस्पर कारक’ (सहायक) होते हैं। दशम भाव में स्थित ग्रह अन्य कारकों से अधिक फलदायी होता है। कुछ आचार्य पंचम भाव में बलवान शुभ ग्रह को भी ‘कारक’ की संज्ञा देते हैं।
6. ‘मारक ग्रह’ज्येतिष ग्रंथों के अनुसार निम्न ग्रह पीड़ित होने पर अधिक हानिकारक (मारक) बन जाते हैं:-
- अष्टमेश
- अष्टम भाव पर दृष्टिपात करने वाले ग्रह
- अष्टम भाव स्थित ग्रह
- द्वितीयेश और सप्तमेश
- द्वितीय और सप्तम भाव स्थित ग्रह
- द्वादशेश
- 22वें द्रेष्काॅण का स्वामी
- गुलिका स्थित भाव का स्वामी
- ‘गुलिका’ से युक्त ग्रह
- षष्ठेश, व षष्ठ भाव में स्थित पापी ग्रह आदि
- एक बली ‘कारक’ ग्रह अपनी भाव स्थिति, स्वामित्व भाव और दृष्ट भाव को शुभता प्रदान करता है
- केंद्र (1, 4, 7, 10) भाव में स्थित ‘कारक’ की दशा पूर्ण शुभ फल देती है। पनफर (2, 5, 8, 11) भाव में स्थित ‘कारक’ की दशा मध्यम फल’ और अपोक्लिम (3, 6, 9, 12) भाव में स्थित ‘कारक’ की दशा साधारण फल देती है। यह फलादेश ग्रह की दशा-भुक्ति में जातक को प्राप्त होता है
- पापकत्र्तरी योग में तथा पाप दृष्ट ‘कारक’ के शुभ फल में कमी आती है
- वक्री ‘कारक’ शुभ ग्रह अधिक शुभ फलदायी होता है
- किसी भाव का ‘कारक’ यदि उसी भाव में स्थित हो तो उस भाव संबंधी फल में कमी या कठिनाई देता है। यह स्थिति ‘कारको भाव नाशाय’ के नाम से प्रसिद्ध है
- एक ‘कारक’ ग्रह की दशा में अन्य ‘कारक’ की भुक्ति उत्तम फलदायी होती है
- ‘कारक’ ग्रह की दशा में संबंधित ‘मारक’ ग्रह की भुक्ति निम्न फल देती है
- यदि ‘कारक’ और ‘मारक’ ग्रहों में दृष्टि आदि का संबंध न हो तो ‘मारक’ ग्रह की भुक्ति कष्टकारी होती है
- एक ‘मारक’ ग्रह की दशा में अन्य ‘मारक’ ग्रह की भुक्ति अत्यंत अशुभ फल देती है
- जब किसी भाव का ‘कारक’ उस भाव से 1, 5, 9 भाव में गोचर करता है और बलवान (स्वक्षेत्री या उच्च) होता है तो उस भाव का उत्तम फल व्यक्ति को मिलता है
- गोचर में भावेश और भाव ‘कारक’ की युति, दृष्टि आदि संबंध होने पर उस भाव संबंधी शुभ फल प्राप्त होता है
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